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प्र व॒ऽइन्द्रा॑य बृह॒ते मरु॑तो॒ ब्रह्मा॑र्चत। वृ॒त्रꣳ ह॑नति वृत्र॒हा श॒तक्र॑तु॒र्वज्रे॑ण श॒तप॑र्वणा ॥९६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। वः॒। इन्द्रा॑य। बृ॒ह॒ते। मरु॑तः। ब्रह्म॑। अ॒र्च॒त॒ ॥ वृ॒त्रम्। ह॒न॒ति॒। वृ॒त्र॒हेति॑ वृत्र॒ऽहा। श॒तक्र॑तु॒रिति॑ श॒तऽक्र॑तुः। वज्रे॑ण। श॒तप॑र्व॒णेति॑ श॒तऽप॑र्वणा ॥९६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:96


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) मनुष्यो ! जो (शतक्रतुः) असंख्य प्रकार की बुद्धि वा कर्मोंवाला सेनापति (शतपर्वणा) जिससे असंख्य जीवों का पालन हो ऐसे (वज्रेण) शस्त्र-अस्त्र से (वृत्रहा) जैसे मेघहन्ता सूर्य (वृत्रम्) मेघ को वैसे (बृहते) बड़े (इन्द्राय) परमैश्वर्य के लिये शत्रुओं को (हनति) मारता और (वः) तुम्हारे लिये (ब्रह्म) धन वा अन्न को प्राप्त करता है, उसका तुम लोग (प्र, अर्चत) सत्कार करो ॥९६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो लोग मेघ को सूर्य के तुल्य शत्रुओं को मार के तुम्हारे लिये ऐश्वर्य की उन्नति करते हैं, उनका सत्कार तुम करो। सदा कृतज्ञ हो के कृतघ्नता को छोड़ के प्राज्ञ हुए महान् ऐश्वर्य को प्राप्त होओ ॥९६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(प्र) (वः) युष्मभ्यम् (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (बृहते) (मरुतः) मनुष्याः (ब्रह्म) धनमन्नं वा (अर्चत) सत्कुरुत (वृत्रम्) मेघम् (हनति) हन्ति। अत्र बहुलं छन्दसि [अ०२.४.७३] इति शपो लुक् न। (वृत्रहा) यो वृत्रं हन्ति (शतक्रतुः) शतमसङ्ख्याताः क्रतवः प्रज्ञाः कर्माणि वा यस्य सः (वज्रेण) शस्त्रास्त्रविशेषेण (शतपर्वणा) शतस्यासङ्ख्यातस्य जीवजातस्य पर्वणा पालनं यस्मात् तेन ॥९६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मरुतो मनुष्याः ! यः शतक्रतुः सेनापतिः शतपर्वणा वज्रेण वृत्रहा सूर्यो वृत्रमिव बृहत इन्द्राय शत्रून् हनति वो ब्रह्म प्रापयति तं यूय प्रार्चत ॥९६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! ये सूर्य्यो मेघमिव शत्रून् हत्वा युष्मदर्थमैश्वर्यमुन्नयन्ति तेषां सत्कारं यूयं कुरुत, सदा कृतज्ञा भूत्वा कृतघ्नतां त्यक्त्वा प्राज्ञाः सन्तो महदैश्वर्यं प्राप्नुत ॥९६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! सूर्य जसा मेघाचा पाडाव करतो तसे शत्रूंना मारून जे लोक तुमचे ऐश्वर्य वाढवितात त्यांचा सत्कार करा. नेहमी कृतज्ञ राहा. कृतघ्नता सोडा व ज्ञानी बना आणि महान ऐश्वर्य प्राप्त करा.